यह कहानी "गुलुबन्द " समर्पित है लछिमा जैसी उन अन्य महिलाओं को , जिनके त्याग एवं परिश्रम की कहानियां कभी लिखी ही नहीं गई ...............'गुलबंद ' वन प्रदेश उत्तराखंड का एक प्रमुख सुहाग का आभूषण है , इसमें १० से १२ तक चौकोर कलात्मक स्वर्ण पत्र मखमल या सनील की २-३ सेंटी मीटर चौड़ी पट्टी पर लगे होते हैं इसे गले में पहना जाता है, वर्तमान में यह आभूषण प्राय : लुप्त होते जा रहे हैं या फिर इनका स्थान लाकेट ने ले लिया है "
गुलबंद
लछिमा की उम्र तब मात्र बारह वर्ष थी, जब उसे इस घर में ब्याह कर लाया गया था, तब से आज तक ससुराल रूपी इस रंग-मंच में कभी एक आदर्श माँ , कभी एक कुशल गृहणी और अब एक अच्छी सास की भूमिका निभाती हुई इस कदर खोई रही की उसे भनक तक न लगी की कब जवानी चली गयी और कब समय ने उसे बुढ़ापे की दहलीज पर ला कर पटक दिया , उसने कभी भी पीछे पलट कर नहीं देखा. विरासत में सास की ओर से उसे जो भी जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, उन जिम्मेदारियों को लाच्छिमा ने बखूबी निभाया है.
आज लछिमा भी उसी चौराहे पर आ गयी है जहाँ पर उसने कभी अपनी सास से घर-परिवार की बागडोर हासील की थी, किन्तु आज परिस्थितिया भिन्न है, लछिमा तो इस घर की इकलौती बहु थी, तब उसकी सास के सामने घर-परिवार, जमीन-जायदाद के बटवारे जैसी समस्या नहीं थी. घर-परिवार, जमीन-जायदाद, सब कुछ तो लछिमा का था, क्योंकि इकलौती वारिस जो ठहरी, आज लछिमा भली-भाँती जानती है अपनी दोनों बहुओं को जिनके बीच में छत्तीस का आंकड़ा रहता है. बड़ी बहु के बस की बात नहीं की छोटी को भी साथ लेकर चल सके छोटी भी कम नहीं है. शौण कम न भादों कम. लछिमा खूब समझती है अपने दोनों बेटों की मज़बूरी को, वे बेचारे भी क्या करें ? किसकी सुने ? उन्हें तो माँ भी प्यारी है, और अपने अपने बीवी-बच्चे भी ! इसलिये बेचारे हमेशा तटस्थ बने रहते है. हाँ इतना अवश्य है की दोनों भाई अपनी-अपनी बीवियों की चीकनी-चुपड़ी बातों में आकर कभी कभार आपस में ही उलझ पड़ते हैं , या फिर माँ को ही भला-बुरा कह देते , लेकिन लछिमा कभी भी इन छोटी-मोटी घटनाओं से विचलित नहीं हुई, वह जानती है कैसे घर परिवार को बाँध कर रखा जा सकता है. उसकी सास भी कहा करती " ज्यां हिल हौल, वाँ गिल लै हौल " अर्थात जहाँ पानी होगा वहां पर कीचड़ भी होगा ही.
बीत्ते पचास-साठ वर्षों मे लछिमा ने कभी भी यह नहीं सोचा की जीवन काल कीं इस अवधि मे उसने क्या खोया और क्या पाया ? उसका जीने का मकसद क्या था ? और कहाँ तक वह अपने मकसद को हासिल कर पाई है? उसे फुर्सत ही कहाँ थी जो इन बिदुओं पर गौर कर सके , आज जब कि बहुत देर हो चुकी है, तब लछिमा स्वयं से पूछती है की मे कौन हूँ ? मेरा अस्तित्व क्या है ? अब जबकि बूढी हड्डियों ने भी जवाब देना आरंभ कर दिया है ऐसे मे लछिमा को लगता है काश / समय चक्र विपरीत दिशा मे घूम गया होता ......अभी तो उसे बहुत कुछ करना शेष है किन्तु लछिमा जानती है की समय चक्र का विपरीत दिशा मे घूमने का मतलब होगा प्रक्रति के नियमों की अवहलेना ,
प्रक्रति के इस विधान को लछिमा भली-भांति समझती है बेवस होकर लछिमा अपने अतीत के पन्ने उधेढने लगती है इसी बहाने उसे लगता है शायद वक़्त उसकी मनो:दशा को भांपते हुवे विपरीत दिशा मे सरक रहा है पीछे.....बहुत पीछे .....जहाँ से आरंभ होती है ससुराल की जिंदगी......ससुराल की दहलीज पर एक पत्नी......एक बहु के क़दमों की प्रथम आहट .... पुरे साठ वर्ष पीछे ............
ससुराल की दहलीज पर लछिमा का पहला कदम, गाँव की अन्य बहु- बेटियों के साथ-साथ लछिमा की सास भी खड़ी थी दरवाजे पर दुल्हन के स्वागत में, और आंगन के दुसरे छोर पर कुछ बुजुर्ग महिलाएं मंगल गीत गाती हुई शुभ-कामनाएं दे रही थी नव-दम्पति के सुखमई एवं दीर्घ वैवाहिक जीवन हेतु , चतुर्दिक ख़ुशी का माहौल था , दूल्हा अमर अपने दोस्तों के साथ बहुत खुश नजर आ रहे थे. चाँद जैसी सुन्दर बहु पाकर लछिमा की सास की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था , चाह कर भी वह अपने आंसुओं को नहीं रोक पायी , ख़ुशी की इस घडी में अमर के पिता जी उनके साथ नहीं थे, शायद मन का यही गुबार बरबस ही आंसुओं के रूप में टपक पड़े. आँखे तो अमरु के साथ-साथ गाँव की अन्य महिलाओं की भी भर आयी थी.
गम एवं ख़ुशी के इस माहौल मे एक नया मोड़ तब आ गया जब लछिमा कि सास ने अपना पुस्तैनी गुलुबन्द उतार कर घर में प्रवेश करने से पूर्वे ही बहु के गले में डाल दिया.........पूरे साड़े चार तोले का गुलुबन्द ने लछिमा की सुन्दरता में मानो चार चाँद जड़ दिए थे , गाँव कि महिलाओं में खुसर-पुशर तो होनी ही थी ,गाँव में बहुत कम महिलाएं थी जिनके पास गुलुबन्द था या फिर पूरे साड़े चार तोले का.......कईयों को तो जलन भी हो रही होगी लछिमा की किस्मत पर .
गुलुबन्द के अतिरिक्त एक और वेश कीमती जेवर दाथुली के रूप में लछिमा को उसकी सास से विरासत में मिली थी, दाथुली अर्थात पर्वतीय नारी का दायाँ हाथ. एक कुशल घस्यारी की पहचान ही उसकी तेज तर्रार एवं चमकती हुयी दाथुली की धार पर निर्भर करती है, यदि इस दाथुली में दो चार घुंघरू जड़े हो तो बात कुछ अलग ही हो जाती है. ऐसी ही एक घुंघरू जडित घुन्ग्राली दाथुली लछिमा को उसकी सास ने खानदानी धरोहर के रूप में भेंट की थी, जब लछिमा पहली बार गाँव की अन्य घस्यरियों के साथ जंगल से घास लेने जा रही थी और साथ में एक आदेशात्मक नसीहत भी..... देख इस दाथुली को गुम मत कर आना ,पतरौल (वन - रक्षक ) को मत थमा देना.... इसके अतिरिक्त एक अन्य महत्तवपूर्ण गुर भी लछिमा ने अपनी सास से ही सीखा था, की जब कभी वन-रक्षक से आमना -सामना हो ही जाय तो उसे एक पुरानी सी टूटी-फूटी सी दाथुली थमा देना. स्वयं को एक आज्ञाकारी बहु के रूप में पेश करती हुई लछिमा ने सास की नसीहत को स्वीकार किया और चल पड़ी जंगल की ओर...... आगे चलकर लछिमा भी घस्यरियों की उसी दल में शामिल हो जायेगी जिससे कमला, खीमा, पुष्पा एवं घनुली दीदी जैसी गीतकार घस्यारी मौजूद रहेगी और गाँव की सरहद से बाहर निकलते ही आरम्भ हो जायेगा उन्मुक्त हंसी-ठिठोली एवं हास्य-विनोद का अविस्मरनीय दौर. वास्तव में इन घस्यरियों को लगता है जंगल ही एक मात्र ऐसा मंच है जहाँ पर ये अपने दुःख-सूख एवं निजी जिंदगी से सम्बंधित अन्य अनछुए पहलुओं को आपस में बाँट कर मन का बोझ हल्का कर सकती है. घर-परिवार की समस्याओं से दूर कुछ घंटे ही सही इन घस्यरियों को लगता है जंगल ही वह स्थान है जहाँ पर ये अपनी खुशियाँ व्यक्त कर सकती है. कितने खूबसूरत होते हैं ये पल... आकाश की गहराई को मापते हुए चीड एवं देवदार के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष रसीले एवं खट्टे-मीठे काफल से लदे वृक्ष और बुरांश के लाल-लाल फूलों से मानो गैल-पातळ में कोई नई नवेली दुल्हन सोलह श्रृंगार करके बैठी है अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में.....
" बेडू पाको बरौमासा ओ नरेन् काफल पाको चैता, मेरी छैला................"
कुमायूं के मशहूर गीतकार ( ? ) की ये पंक्तियाँ आज भी उत्तरांचल के गैल- पातलों, नदी-नालों एवं धार-धार में यूँ गूँज रही है मानो कल ही की बात हो, आज भी लछिमा के कानो में ये कालजयी पंक्तियाँ, ये कर्ण प्रीय, ये रसीले बोल ढीक उसी अंदाज़ में गूँज रही है जैसे कभी कमला दीदी के मधुर कंठ से निकल कर गूंजा करती थी. अतीत की धुंधली सी परछाई मानो जीवंत हो उठी है, परत-दर-परत अतीत उसकी आँखों में तैरने लगता है. "आपु खानी पान सुपारी, ओ नरेन मकै दिनी बीडी, मेरी छैला........... " गीतकार खूब समझता है इन घस्यरियों की मनः स्थिति को, शायद यही मंशा रही होगी उस गीतकार की, विरह -वेदना, प्रेम-वात्सल्य के साथ-साथ हास्य-विनोद भी आवश्यक समझता है इन घस्यरियों के जीवन में.......
लमगाड़ा के घने बांज , बुरांश एवं काफल के पेड़ों से आच्छादित गैल-पातलों में जब खीमा दीदी की स्वर लहरी गूंजती है तभी आवाज़ से आवाज़ मिलता हुआ काफुआ पंछी भी काफो-पाको......... काफो-पाको......... अर्थात काफल पक गए है-काफल पक गए है.... की रट लगाते हुए आह्वान करता है की घस्यरियों आओ, घस्यरियो लाल-लाल रसीले काफल खाओ. आबादी से दूर घने जंगल में पाया जाने वाला कफुवा पक्षी अपने आकार-प्रकार एवं रंग रूप में कैसा है? शायद बहुत कम लोग जानते होवेंगे? किन्तु घस्यरियो का चिरपरिचित यह पंछी जब चैत-वैशाख के महीने में काफल के वृक्ष लाल-लाल खट्टे-मीठे रसीले काफल से लद जाते है तब अपने सुरीले कंठ से काफो-पाको.......... की धुन छेड़ता है तब गैल पातलों में साल भर से पसरी हुई ख़ामोशी अंगड़ाई लेने लगती है, चैत का रंगीला महिना जब घर-गाँव में झोडे-चांचरी की धूम मची रहती है तब इन गैल-पातलों में मन को उदेख (उदास ) कर देने वाली ऐसी ख़ामोशी पसरी रहती है जो किसी भी विरही मन को और भी अधिक व्याकुल कर देती है ऐसे में कफुवा की काफो-पाको, की रट इन घस्यरियों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती है और उदेखी मन गा उठता है...........
" बेडू पाको बरौमासा, ओ नरेन काफल पाको चैता मेरी छैला .............
आपु खानी पान सुपारी ओ नरेन मैं पिलुनी बीडी मेरी छैला...... "
खीमा दीदी कि मधुर कंठ से निकली स्वर लहरी अभी गैल पातलों में गूँज ही रही थी कि दूसरी छोर से एक चिरपरिचित ध्वनी ने लछिम कि एकाग्रता को भंग करके रख दिया और प्रतिध्वनी गैल-पातल, घाट-घाट करती हुई पुन: उस तक पहुँच रही थी.
दीदी वे उई........ उई............... उई.......... उई......... दीदी वे उई.......... उई.......... उई......... उई........... आवाज़ धनुली दीदी कि लगती है ? सूरज सिर पर चढ़ आया है इसका मतलब है अब समय हो गया है कलेवा , अर्थात दोपहर कि रोटी का, धनुली दीदी सभी घस्यरियों को आमंत्रित कर रही है आ........ उई.............. आ........... उई......... एक और लम्बी हूक गैल पातलों से धार धार टकराती हुई विलीन हो रही थी जो घस्यरियों कि सांकेतिक भाषा में प्रतिउत्तर दे रही थी बस आ रही हूँ. इस अधूरे पूवा (गठरी ) को पूरी कर लूँ , जब तक कमला दीदी अपनी अधूरी गठरी पूरी कर लेती है तब तक उस धार से पुष्पा दीदी और हीरा दीदी भी पहुँच जायेगी और आरंभ हो जायेगा दोपहर का कलेवा और हास्य-विनोद के साथ-साथ आदान-प्रदान होगा भोजन का, जिसमे मुख्यत गुड़ की डली, हरी धनिया और लहसुन मिश्रित नमक और रोटी प्राय सभी घस्यारियों के पास होता है, हाँ कभी कभार कोई घसयारी कुछ अलग भी लेकर आती है जिसमे मुख्यत चिउड़े, खाजे , मिश्री की डली और कभी कभार बाल मिठाई के साथ गुड और भुने हुए चने भी......
दोपहर अर्थात मध्यावकाश रुखी सुखी रोटी और साथ में हंसी ठिठोली एव दुःख दर्द बांचने का समय, घर- गृहस्थी एवं दुनियादारी से बेखबर उन्मुक्त हंसी ठिठोली के ये क्षण इन घस्यारियों कि दिनचर्या में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाते है, कितने सकून भरे होते है विश्राम के ये पल ? काफल बांज, बुरांश एवं चीड़ के पत्तों से छन छन कर शीतल मंद बयार जहाँ इन थकी हारी घस्यारियों के तन मन को अलौकिक सुख का एहसास कराती है वहीँ दूसरी और गधेरे का स्वच्छ एवं शीतल जल इनके लिए उर्जा का एक मुख्या स्त्रोत होता है.
हंसी ठिठोली, हास्य विनोद के इन पलों के दौरान ही खीमा दीदी की नज़र अचानक लछिमा के गुलबंद पर जा टिकी "हाय कितना भारी गुलबंद है और कितना सुंदर भी ?" देखूं तो ज़रा, मायके से लाई है क्या ?
"नहीं तो मेरी सास का है, कह रही थी नई बहु है, गला खाली-खाली अच्छा नहीं दीखता है........... गले से गुलबंद उतार कर लछिमा ने खीमा दीदी को थमा दिया .
"देख तो कितनी सुंदर गड़ाई है, और कितना वजनी भी... " गुलबंद की जांच-परख करने के बाद खीमा दीदी बोली........
तभी तो मेरी सास बता रही थी कि पूरे गाँव में केवल लछिमा कि सास के पास ही साड़े चार तोले का पुस्तैनी गुलुबन्द है , अच्छा तो यही है वह ? मेरी सास ठीक ही कह रही थी.
लकिन लछिमा तू तो पगली हैं , इसे पहनकर जंगल क्यों आ गई , जानती नहीं पिछले साल प्रेमा दीदी का गुलुबन्द कोई छीन के ले गया, वो तो अच्छा हुआ प्रेमा दीदी ने चुपचाप गुलुबन्द उतार कर उसके हवाले कर दिया ......वरना ......गुलुबन्द लछिमा को थमाती हुई खिमा दीदी बोली.
"हाँ दीदी ! आप ठीक कहती हो, कल से इसे पहन कर नहीं आउंगी,......."
"लेकिन आज इसे सँभाल कर रखना , वरना......."कमला दीदी ने मानो कोई चुटकुला सुना दिया हो ...और हा....हा.... ही....ही.....एक बार पुन: हंसी- ठिठोली का दौर आरम्भ हो गया. .....बीती हुई बातों को याद कर लछिमा खो सी गई अतीत की उस भूल - भुलैया मे.......
तभी घर के आंगन से दोनों बहुओं का शोर - शराबे ने लछिमा की तन्द्रा को मानो भंग कर दिया , उनींदी सी आँखों से उसने खिड़की से बहार देखा तो लगा एक सुखद स्वप्न का अंत निकट आ गया है ........ अब तक दोनों बहुओं के बीच में उसके दोनों बेटे भी आ पहुंचे थे , उनकी बातों को सुनकर लछिमा को समझते देर न लगी की .....इस झगड़े की जड़ यही पुश्तैनी गुलबंद है... जो अभी भी लछिमा के गले में था ,लेकिन लछिमा की बेबसी यह थी की गुलबंद एक है और हिस्से दो..... वह बटवारा करे भी तो कैसे ?.......... लेकिन आज नहीं तो कल इस गुलबंद का बंटवारा निश्चित है फिर भला इस रोज-रोज के क्लेश को ओर लम्बा क्यों खींचा जाए?.... इसके बंटवारे से दोनों भाईओं में आपसी प्रेम, सुख-शांति और दोनों बहुओं के बीच आये दिन की तू-तू, मै-मैं खत्म हो सकती है तो क्यों न आज ही इस गुलबंद का बंटवारा कर दिया जाय ?. बहुत सोच विचार के बाद लछिमा ने दोनों बेटों को पास बुलाया ओऔर ....... ये लो ! यही है मुसीबत की जड़ ! दोनों भाई सुनार के पास जाकर इसको दो हिस्सों में बाँट लो, बहुओं के लिये कोई जेवर वगेरह बनाना है तो ठीक है बना लो वर्ना पैसे लेकर आपस में बांट लेना .............
'मां ऐसी कोई बात नहीं है आप गलत समझ रहीं हैं , बड़े बेटे का चेहरा देख कर साफ़ अनुमान लगाया जा सकता था की वह भी यही चाहता था
लो ! जो मैं कह रही हूँ वही करो ! मैं नहीं चाहती की तुम लोग आपस में लड़ो- झगड़ो, इस गुलुबन्द की खातिर .........
बड़े बेटे ने माँ से गुलबंद पकड़ा और दोनों भाई चल पड़े सुनार के पास. उन्हें जाते देख लछिमा की आँखों से मानो सावन भादों की झड़ी लग गयी. आज लछिमा को लगा शायद यही दिन देखने के लिए वह अब तक जिन्दा है. पिछले ६-७ पुश्तों की धरोहर को सँभाल नहीं पायी लछिमा ..... माथे पर लगे इस कलंक को क्या उसकी बूढी हड्डियाँ बर्दाश्त कर पाएंगी .......................?
"क्या बात है ? बुडिया कमरे से बाहर नहीं निकल रही है", बड़ी बहु ने उत्सुकता वश कमरे में झाँका,
"ये क्या ? बुडिया मर तो नहीं गयी ? या कोई श्वांग रच रही है... देखूं तो ज़रा....... उसने बुढिया को टटोला .... तब तक शायद देर हो चुकी थी, लछिमा अब इस दुनिया में नहीं रही और न ही उसका पुश्तैनी गुलबंद ही ..........
II इति II
lovely story..........this is ture.......
जवाब देंहटाएंबेडू़ पाको ...... को लिखने वाला एक गुमनाम कवि नहीं कुमाँयूं का एक नामी कवि है|
जवाब देंहटाएंपता करलें ।