रविवार, 11 नवंबर 2012

रियली ! डेविड पेट्रियट इज ग्रेट देन...............

अमेरिका की सबसे ताकतवर ख़ुफ़िया एजेंसी सी आई ए के प्रमुख डेविड पेट्रियट ने विवाहेतर संबंधों के चलते नैतिक आधार पर अपने पद से इस्तीफा दे  दिया है और राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उनका इस्तीफा मंजूर कर  लिया है l
स्वयं सी आई  ए के प्रमुख डेविड पेट्रियट के शब्दों में-
"अपने 37 साल के वैवाहिक जीवन के बाद मैंने विवाहेतर सम्बन्ध स्थापित किये जो की एक बहुत ही निंदनीय एवं गलत कदम है , मेरा  ऐसा आचरण एक पति और एक  सी आई  ए जैसी महत्वपूर्ण संस्था के मुखिया के नाते अस्वीकार्य है"
60 वर्षीय डेविड पेट्रियट ने इराक एवं अफगानिस्तान में  अमेरिकी सेना द्वारा  चलाये जा रहे सैनिक अभियानों का सफलता पूर्वक नेत्रत्व किया उनकी   प्रतिभा एवं देश के प्रति उनके समर्पण की राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भूरी-भूरी  प्रशंसा की है,तभी तो नेशनल इंटेलिजेंस के निदेशक जेम्स क्लैपर ने कहा है " डेविड पेट्रियट का इस्तीफा देने से हमने देश के अत्यधिक सम्मानित नौकरशाहों में  से एक को खो दिया है " l
बहरहाल  ! अपने देश में तो  यह सब  नहीं चलता है, शास्त्री जी के बाद एकाध ऐसी घटना सामने आई होगी जब किसी नौकरशाह अथवा राजनेता ने उसपर लगे  आरोपों के चलते नैतिक आधार  पर  अपने  पद से इस्तीफा दिया होगा ? अन्यथा आज तो हालत यह है की यदि हम पश्चिमी देशों  के इन   आदर्शों को  अपनाने लगे तो हमारी संसद पक्ष एवं विपक्ष विहीन हो जाएगी, प्रशासनिक व्यस्था अस्त-व्यस्र हो जाएगी, क्योंकि यहाँ पर कौन ऐसा है  जिस पर आरोप नहीं लगे  और जिसका दामन साफ़ है ?
मुझे एक चैनल पर हिंदी के सुप्रशिद्ध हास्य कवी अशोक चक्रधर की कही गई एक बात बारबार याद आती है की " वैस्ट ( West )  से हम वेस्ट (Waste  ) तो आसानी से    ग्रहण कर  लेते हैं जबकि हमे वैस्ट (West  )  से बैस्ट (Best ) को अपनाने की आवश्यकता है " l
सभी पाठकों, ब्लोगरों एवं देश वासियों को ज्योति पर्व दीपावली की ढेरों बधाई एवं शुभकामनाएं   l 


--------------------------------- p_singh67@yahoo.com -------------------------------------

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

जो बात इस जगह है कहीं पै नहीं..............


प्रवेश द्वार से सटे हुए दो विशाल पाषाड खण्डों को देखते ही सहज अनुमान लगाया जा सकता है की अब हम शभ्यता के मद मे चूर  आधुनिक चकाचौंध भरी दुनियां को छोडकर उस आदम युग में  प्रवेश करने जा रहे हैं  जहाँ कभी मनु की अशभ्य एवं अशिक्षित  संतान अठखेलियाँ किया करती थी, कदाचित हमारा अनुमान सही निकला, मुख्य द्वार को लांघते ही हम एक ऐसी दुनियां में  प्रवेश क्र चुके थे जहाँ चरों ओर पसरी हुई गहन ख़ामोशी को तोड़ने का असफल प्रयास करते नाना प्रकार के कीट-पतंगों एवं पशु-पक्षियों की आपस में  मानो  होड़ सी लगी हुई है, समीप ही  एक पहाड़ी से गिरती हुई शीतल-स्वच्छ जल धारा सदियों से यहाँ के वातावरण में जल तरंगों का मधुर कर्ण प्रिय संगीत एवं ताजगी घोलती आ रही है।
          दिसम्बर-जनवरी की गुलाबी-गुलाबी सी ठंडक में  ऊष्मा का संचार करती सूरज की किरणें ! जी करता है तनिक ठहर जाउँ और घुल-मिल जाउँ इस मानव समूह के मध्य में जाकर ! देखो न !  कितना सजीव  प्रतीत होता  है ?
"सुनो " एक अंतराल से खंडित वार्तालाप को पुन: जोड़ने का प्रयास किया मैंने!
"हूं ...... ! कुछ कहा तुमने ?
"अवश्य  ! वह सामने मानव समूह देख रहे हो न? देखो ! कैसे गुनगुनी धूप  का आनंद ले रहा है?
"हाँ! देख रहा हूँ, "हालांकि शब्द बेरुखे थे, किन्तु ध्वनी में  कही-न-कही विष्मय एवं कौतुहल अवश्य छिपा था। 
 यूँ  लगता है  मानो लौह-सीमेंट निर्मित एवं पुरानी  टूटी-फूटी क्राकरी  के रंग-बिरंगे टुकड़ों से सुसज्जित भिन्न-भिन्न आकर-प्रकार एवं भावभंगिमा लिए हुए मानवाकृतियाँ समूह बनाये हमारे स्वागतार्थ खड़े थे, शायद  हमसे संबाद स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे ।
अरे ....... अरे............तनिक देखो तो सही ! बंदरिया अपने नवजात शिशु को सीने से लगाये भागे जा रही है ..........नहीं .......! नही...........! कहाँ भागे जा रही है ? वह तो बंदरिया की एक निर्जीव आकृति भर है,
ठीक कहा तुमने ! वह तो एक निर्जीव आकृति भर है बंदरिया की ! किन्तु.......... ? 
किन्तु यह विशालकाय अजगर ..........?  क्या यह भी कोई............?
अरे भई कुछ नहीं है, शिल्पकार की शिल्प कला का अदभुद एवं बेजोड़ नमूना .....शायद इसमें जान डालना भूल गया होगा अन्यथा अब तक न जाने कहाँ गायब हो चुका होता।
स्वयं से वार्तालाप के इस संक्षिप्त दौर  को अस्थाई विराम  देते ही कदम कुछ गति पकड़ते हैं, छोटे-बड़े, आड़े-तिरछे, घने एवं चौड़ी पत्तीदार वृक्ष अंशुमाली की राह में बाधक बने हुए थे, सपष्ट था की सदियाँ गुजर गई मगर अंशुमाली की किरणे  आज तक जमीन का स्पर्श भी नहीं कर  पाई  थी, सूरज की मात्र एक किरण की चाहत में पेड़-पौधों में  भी  प्रदिद्वान्दिता  की भावना पनप चुकी थी, यही कारण  था की कुछ पेड़-पौंधे अपनी वास्तविक  ऊंचाई से भी कहीं उपर उठ चुके हैं, नीचे  जमीन की गीली एवं  नम मिटटी नाना प्रकार के खर-पतवार एवं कीट-पतंगों को पनपने का भरपूर अवसर प्रदान कर रही है, अचानक एक घास-फूस की झोपडी ने मेरे कदम रोक लिए------
इस वीरान जंगल में  यह मानव निर्मित झोपडी-----?  शायद कोई रहता भी होगा-----? उम्मीद है की अंदर के हालात   मेरी शंका का समाधान कर  पाएंगे--------
तनिक सोच-विचार के पश्चात् मैं   झोपडी में  प्रवेश में  करता हूँ ----
झोपडी के अंदर का दृश्य देखने लायक था, यहाँ-वहां  चारों  कोने मकड़ी के जालों से आचाछादित जो की काफी पुराने जान पड़ते हैं, उधर एक कोने में  बना मिटटी का चूल्हा, कुछेक अधजली किन्तु बुझी हुई लकड़ी के टुकड़े, यत्र-तत्र बेतरतीब बिखरे हुए धुल-धूसरित मिटटी के टूटे-फूटे बर्तनों को देख कर  अनुमान लगाया जा सकता है की अब तक इंसान  सभ्यता के लिहाज से काफी तरक्की  कर  चुका  था, अर्थात आदम युग काफी पीछे छुट चुका   था।
"क्या सोच रहे हो ?"
"हूँ..........  सोच रहा हूँ सभ्यता के इस पड़ाव में  इंसान का रहन-सहन, उसके तौर-तरीके कैसे रहे होंगे ?"
संघर्ष तो यहाँ भी कम नहीं थे.........?
इस वियावान जंगल में  अकेला एक आदम दम्पति कैसे मुकाबला करता होगा खूँखार  जंगली दरिंदों से  ?
सदियों से वीरान पड़ी झोपडी को देखकर अनुमान लगाना भी मुमकिन नहीं था की आगे चलकर किस रूप में  हुई होगी उस आदम  दम्पति की परिणति  ? 
मैं जनता था  मेरे इन सवालों का जवाब  झोपडी की ये जर्जर दीवारें, और ये शेष-अवशेष भी  नहीं  नहीं दे पाएंगे, लिहाजा समय की उपयोगिता  को समझते हुए अब  मेरा यहाँ पर रुकना निरर्थक ही होगा।
 सूरज सिर पर चढ़ आया था, उबड़-खाबड़ वन प्रदेश में हिंसक जंगली पशुओं से स्वयं को बचते-बचाते अब मैं सुरम्य वादियों में विचरण कर रहा था, पाषण  युग से अब तक के इस सफ़र में  तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों  को समेटते हुए एक नए युग में  प्रवेश करना सचमुच बेहद सुकून भरा था, दूर-दूर तक फैली हुयी हरी-भरी घाटियाँ, यत्र-तत्र छितराए हुए से मानवीय बस्तियां, घर-आंगन में खेलते-खिलखिलाते बच्चे, चारों ओर लहलहाते खेत-खलिहान, नैसर्गिक सौन्दर्य एवं महान शिल्पी नेकचंद की कला एवं कल्पना शक्ति "राकगार्डन" का अंतिम पड़ाव,  लौह-सीमेंट निर्मित एवं रंग-बिरंगी क्राकरी के टुकड़ों से सुसज्जित एक बेंच में  बैठकर तनिक विश्राम  के पलों में सामने झुला झूलते हुए बच्चों को देख किसी का भी मन-मयूर डोलने लगता है......? सचमुच कितनी सुंदर है यह रचना........  
 

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(सिटी ब्यूटीफुल चंडीगढ़ स्थित पद्मभूषण महान शिल्पी नेकचंद की कला एवं कल्पना शक्ति का अदभुत  संगम "राकगार्डन" के समानान्तर लिखी गई एक पोस्ट जिसे कहानी के रंग में  रंगने का प्रयास मात्र किया गया है। 
                                        _____________ ( p_singh67@yahoo.com ) ____________




बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

सम्पूर्ण आजादी अर्थात आजादी का स्वदेशीकरण........?




यह एक विडंबना ही है की आजादी के छ: दशक पार चुकी भारतीय जनता आज भी अंग्रेजों के  द्वारा जबरन थोपी गई औपनिवेशिक प्रतीकों को अपने जर्जर कन्धों पर ढोने को मजबूर है, हमारी न्याय पालिका आज भी अंग्रेजी ढर्रे पर काम कर रही है, आज भी हमारी प्रशासनिक व्यस्था मैकाले  की परिकल्पना  को साकार करने की दिशा में सक्रीय है, जीवन के हर क्षेत्र में अंग्रेजियत इस कदर हावी हो चुकी है की आज हम चाह कर भी इन गुलामी के प्रतीकों को उखाड़ फैकने का साहस नहीं कर पा रहे हैं, हमें लगता है की  अंग्रेजी के बिना हम प्रगति  नहीं कर पाएंगे, हमें लगता है की जब तक हम  अंग्रेजियत को दिल से नहीं अपना लेते तब तक हम गवांर के गवांर ही रहेंगे, किन्तु सुखद पहलु यह है की इन सबके बावजूद भी किसी एक कोने से " सम्पूर्ण आजादी" जैसे शब्द यदा-कदा सुनने को मिल ही जाते है. " सम्पूर्ण आजादी" अर्थात अपनी संस्कृति, अपनी परम्पराएँ, अपनी न्याय पालिका, अपने कायदे-कानून, अपनी प्रसाशनिक व्यस्था, अपने तौर-तरीके, अपनी भाषा में अपनी शिक्षा, अर्थात स्वाभिमान के साथ जीना ही सही  माईनो में आजादी का अहसास है, इस अहसास को सर्वप्रथम अनुभव किया था महान वैज्ञानिक, स्वाभिमानी राष्ट्र भक्त और भारत रत्न चन्द्र शेखर वेंकट रमण ने, कहा जा सकता है की स्वाभिमानी चन्द्र शेखर वेंकट रमण जैसे स्वाभिमानी  राष्ट्र प्रेमी को दुनियां की कोई भी ताकत कभी गुलामी की बेड़ियाँ में नहीं जकड  पाई है, अन्यथा जिसका स्वाभिमान मर चुका हो, जिसके दिल से राष्ट्र भक्ति का जज्बा ख़त्म हो चुका हो वह व्यक्ति स्वछंद होकर भी इस स्वछंदता का अहसास नहीं कर पाता है........
आजादी से लगभग सत्रह वर्ष पूर्व (1930) भौतिकी का नोबेल पुरूस्कार समारोह में कोंवोकेशन  गाउन  (चोगा ) और हैट (टोपी) पहनने से इनकार करने वाले महान वैज्ञानिक, राष्ट्र भक्त और स्वाभिमानी भारत रत्न चन्द्र शेखर वेंकट रमण को  सदैव भारतीय  संस्कृति एवं भारतीयता से लगाव रहा, अंग्रेजी साम्राज्य के अधीन होने के बावजूद भी उन्होंने अपनी भारतीय पहिचान कायम रखी और भारतीय परिधान (साफा) पगड़ी पहनकर नोबेल पुरूस्कार समारोह में शामिल हुए, उसके बाद  2 अप्रैल 2010  में भोपाल स्थित भारतीय  वन प्रबंधन संसथान में आयोजित दीक्षांत समारोह में तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने यह कह  कर गाउन पहनने से इनकार कर दिया था की "मुझे अभी तक यह समझ में नहीं आता की भारत की आजादी के छह दशक  से भी अधिक समय गुजर जाने के पश्चात भी हम क्यों इन औपनिवेशिक अवशेषों से चिपके हुए हैं ? गाउन  और हैट से जुडी हुई एक और घटना 12 जनवरी  2012 की है जब त्रिपुरा  के मुख्यमंत्री  मणिक सरकार ने त्रिपुरा केन्द्रीय विश्वविद्यालय के नौवे दीक्षांत समारोह के दौरान औपनिवेशिक परम्परा का प्रतिक गाउन  पहनने से इनकार कर दिया परिणाम स्वरूप उस दीक्षांत समारोह दौरान मुख्यमंत्री  मणिक सरकार सफ़ेद कुरता-पैजामा पहने हुए नजर आये जबकि शेष आमंत्रित अथिति गुलामी का  प्रतीक गाउन और हैट पहने हुए नजर आये, कुछ समय पहले बाबा साहब  भीम राव  अम्बेडकर विश्वविद्यालय के तीसरे दीक्षांत समारोह में पूर्व राष्ट्रपति ऐ.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा था की   "गाउन को  दीक्षांत समारोह से बहार किया जाना चाहिए, क्योंकि यह ब्रिटिश परम्परा का प्रतिक है, इसे पहनने से असहजता महसूस होती है, वर्तमान राष्ट्रपति चुनाव के दौरान राष्ट्रपति उम्मीदवार हेतु देशभर की जनता खासकर  युवाओं का ऐ.पी.जे. अब्दुल कलाम को मिला व्यापक समर्थन शायद उनकी  सादगी, उनका स्वाभिमान और भारतीय परम्पराओं के प्रति उनकी गहरी आस्था का ही एक परिणाम था,
बहरहाल दैनिक समाचार पत्र 'आज समाज' में छपी एक खबर के अनुसार राष्ट्रपति भवन ने बिहार के दरभंगा जिले  में  स्थित ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह के आमंत्रण पत्र में से राष्ट्रपति  के नाम से पहले महामहीम  शब्द को हटाने का निर्देश जारी किया है, स्वयं राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के अनुसार   "महामहिम" शब्द औपनिवेशिक  भावना को प्रकट करता है," राष्ट्रपति भवन के निर्देशानुसार अब नये आमंत्रण पत्र  छपवाए जायेंगे जिनमें महामहीम की जगह "श्री" अर्थात श्री प्रणव मुखर्जी लिखा  होगा, निसंदेह सम्पूर्ण आजादी अर्थात आजादी का स्वदेशीकरण की दिशा में राष्ट्रपति भवन अथवा प्रणव मुखर्जी द्वारा लिया गया यह एक स्वागत योग्य कदम है, किन्तु स्मरण रहे की यह कदम सम्पूर्ण  आजादी अथवा आजादी के स्वदेशीकरण की श्रंखला की मात्र एक कड़ी है ................. 



रविवार, 29 जुलाई 2012

आम आदमी का तकिया कलाम " मैं क्या कर सकता हूँ......?


चारों ओर अफरा-तफरी का माहौल था, धू-धू कर जलती  हुई ईमारत को देख    आस -पास से  लोगों की भीड़ जमा होने लगी, किसी ने आग में फंसे हुए लोगों को  निकालना    आरम्भ किया तो कोई बाल्टी भर-भर कर पानी लाता और भड़के  हुए आग के शोलों को बुझाने  का  प्रयास करता अर्थात अपनी-अपनी सामर्थानुसार  हर कोई मदद को आगे आया....जलती हुई ईमारत और संकट की इस घडी में लोगों की एकजुटता और सहयोग की भावना को देख  ईमारत से कुछ दूरी पर स्थित  पेड़ की डाल पर बैठी  एक नन्ही सी चिड़ियाँ से रहा नहीं गया अत: उसने भी आग बुझाने  में सहयोग करने का निर्णय लिया, अब क्या था? नन्ही सी चिड़ियाँ  समीप के तालाब  से बार-बार  अपनी चोंच में भर-भर कर पानी की बूंदें लाती और आग की ऊँची-ऊँची लपटों से स्वयं को बचाती हुई आग बुझाने का प्रयास करती, दूर खड़ा  एक तमाशबीन यह सब देख रहा था, नन्ही चिड़ियाँ की इस कोशिश  पर एक बार तो वह खूब हंसा और फिर नन्ही चिड़ियाँ के पास गया....
" अरी नन्ही सी चिड़ियाँ तू भी कितनी नादान है  ,,, तुझे क्या लगता है ? क्या बूंद-बूंद पानी से तू इन आग की लपटों को बुझा  पायेगी.....?
नन्ही चिड़ियाँ का जवाब था-
"मैं जानती हूँ मेरा यह नन्हा सा प्रयास आसमान को छूती हुई इन आग की लपटों के सामने कुछ भी नहीं है किन्तु मैं चाहती हूँ की कल को जब इस जलती हुई ईमारत का  इतिहास लिखा जायेगा तो उसके  पन्नों मे  मेरा नाम आग लगाने वालों में नहीं  अपितु आग बुझाने वालों में लिखा हो ........
नन्ही चिड़ियाँ का जवाब था.


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साभार- क्रन्तिकारी राष्ट्र संत  मुनि श्री तरुण सागर जी महाराज  के श्री मुख से