रविवार, 7 मार्च 2010

सार्थकता....... महिला दिवस की

आज महिला दिवस मनाया जा रहा है , अर्थात अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, हम भारतीयों के लिये  यह  संतोष की बात है की कम से कम आज का दिन तो हम "दिवस" के रूप में मना रहे हैं , कम से कम टीचर डे, फादर डे , मदर डे के रूप में तो आज का दिन नहीं मनाया जा रहा है . हालाँकि सिर्फ भारत में ही नहीं अपितु शिक्षित एवं सभ्य देशो में भी इस दिवस की मह्तवता को महसूस किया गयाहै , क्योंकि महिलाऑ  के प्रति भेदभाव दुनिया के किसी भी देश में या किसी भी समाज में देखा जा सकता है ,  दुनिया के किसी भी समाज में महिलाऑ  के प्रति जो नकारात्मक सोच  सदियों से व्याप्त  है  क्या उसे महज एक दिन में बदला जा सकता है  ?
जी नहीं ! ८ मार्च को हमने महिला दिवस के रूप में घोषित कर दिया है , समाचार पत्रों में एक दो विवादास्पद लेख छाप दिए जाते है , कुछ समाचार पत्र  इस दिन को अपने सम्पादकीय में स्थान देकर महिला संगठनो एवं अन्य समाजिक संगठनो की सहानुभूति बटोरने में कामयाब हो जाते हैं , प्रसारण माध्यमो में उनके उद्घोषक इस दिवस की बधाइयाँ  दे दे कर अपनी अपनी रेटिंग बढाने की जुगत में रहते हैं  विभिन्न समाजिक एवं राजनेतिक पार्टिया इस दिवस को अपने अपने अंदाज़ में भुनाने का प्रयाश  करते देखे जा सकते हैं , और तो और लेखन या साहित्य जगत से जुड़े  हुए तमाम बुद्धिजीवी भी इस दिवस को एक बिषय वस्तु के तौर पर देखतेहैं  , एक ब्लॉगर के लिए इस से बेहतर और क्या हो सकताहै  कि घर बैठे एक मुद्दा मिल जाता है पोस्ट के रूप में ..........
प्रश्नं  यह उठता है  की क्या उस पीड़ित महिला को इस बात की जानकारी है  क़ि उसके सम्मान के लिए, उसके अधिकारों के लिए या फिर उसकी तर्रक्की के लिए आज का दिन "महिला दिवस " के रूप में मनाया जा रहा है . कौन है  वह पीड़ित महिला ? किसके अधिकारों का हनन हुआ है  ? किसे नहीं मिल पा  रहा है  न्याय ?  इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढे बगेर  यदि हम महिला दिवस क़ि बधाईया देते हैं  तो यह एक बेमानी होगी ,वास्तव में महिला दिवस क़ि बधाईया वे महिलाएं बटोर रही हैं  जो कहती हैं  "हम किसी से कम नहीं " और जिन्होंने महिला विधेयक को ले कर पिछले एक - डेढ़ दशको  से हाय  तोबा मचा रखी है   यहाँ पर "महिला दिवस " या फिर महिला आरक्षण विधेयक क़ि प्रासंगिता  पर प्रश्न चिन्ह  जड़ देना  मेरा मकसद नहीं है  बल्कि एक आशंका से मै भी ग्रसित हूँ क़ि क्या इस विधेयक के माध्यम से महिलायों का समग्र  विकास   हो पायेगा ? क्या उस पीड़ित महिला को इस प्रकार के विधेयक न्याय दिला पाएंगे ? क्या महिला दिवस के रूप में एक दिन का चयन कर इस " आधी आबादी " को उसका सम्मान एवं स्थान हासिल हो पायेगा ?
जहाँ तक मै समझता हू एक महिला पर अत्याचारों का दौर तब आरंभ होता है  जब वह एक बेटी के रूप में जन्म लेती है , उसे इस बात का  एहसास कराने वाली कोई और नहीं बल्कि उसकी अपनी माँ ही होती है  जो उसे जीवन भर इस बात क़ि याद दिलाती रहती है क़ि वह एक लड़की है , एक नारी है , जीवन के हर मोड़ पर उसकी रोका टोकी जारी रहती है , और आगे चल कर वही बेटी एक बहु के रूप में प्रताड़ित क़ि जाती है , वहां पर भी उसके अत्याचारियों में सर्वप्रथम नाम आता  है  सास एवं ननद का जो स्वयं एक महिला है  ,हाँ पिता पति या ससुर एक अपवाद के तौर पर सामने आये है जिन्हें रोकने के लिए कानून क़ि नहीं बल्कि  शिक्षा एवं जागरूकता क़ि आवश्यकता है , अर्थात हम बेटी को शिक्षित करें और बहु को  सम्मान दें  तभी महिला दिवस की  सार्थकता  है , तथा महिला दिवस की  बधाईया स्वीकार योग्य है

3 टिप्‍पणियां:

  1. 'हम बेटी को शिक्षित करें और बहु का सम्मान करें तभी महिला दिवस की सार्थकता है'

    - शुक्र है इसकी शुरुआत हो चुकी है.

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  2. पाण्डेय जी आपने इस ब्लॉग में विजिट किया और मेरा मनोबल बढाया बहुत-बहुत धन्यवाद ,
    और हर्ष जी आपने ब्लॉग कि तारीफ करी धन्यवाद., आपसे संपर्क नहीं हो पा रहा है, क्यों ? यदि कमियों की ओर आप इशारा करें तो मुझे ख़ुशी होगी......

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