इन्जिनीरिंग कालेज का पोस्ट ग्रेजुएट स्ट्रक्चर ब्लाक ,इसके विशाल गलियारे में सूरज की किरणें सीधे प्रवेश कर रही थी ,इस कारण गलियारे में किसी भी प्रकार की वैकल्पिक रोशनी की आवश्यकता नहीं थी , बावजूद इसके गलियारे की सभी बत्तियां जल रही थी और सूरज की तेज रोशनी में मानो टिमटिमा रही थी अर्थात अनावश्यक उर्जा की खपत (बर्वादी )
प्रात: नौ बजे से दोपहर दो बजे तक कई छात्र- छात्राएं ,कई प्रोफेसर और कई छोटे -बडे कर्मचारी इस गलियारे से होकर गुजर गए लेकिन इन टिमटिमाती बत्तियों को हर कोई नजरंदाज कर चलता गया , किसी ने यदि थोडा बहुत गौर किया भी होगा तो वह भी यही सोचकर आगे निकल गया की "जलने दो मैनू की ?" अर्थात विद्यार्थी, प्रोफेसर एवं सभी छोटे-बडे कर्मचारियों की एक ही सोच की "मैनू की ?" और यदि किसी ने अनावश्यक जल रही इन बत्तियों को बुझाने का प्रयाश किया भी होगा तो उसके साथ मौजूद सहपाठी या कर्मचारी ने यह कह कर उसे रोक दिया होगा की "छड परे तैनू की ?"
बहरहाल ! पोस्ट लिखने हेतु प्रेरणा की स्रोत बनी कालेज की एक छात्रा जो वहां से गुजरती है और "तैनू की........" मैनू की .....जैसी संकीर्ण मानसिकता से परे उस छात्रा ने अनावश्यक जल रही उन बत्तियों को बंद कर जो आदर्श प्रस्तुत किया मैं स्वयं उसका एक प्रत्यक्ष गवाह बना, और मैं सादर नमन करता हूँ उस आदर्श को .......................
अच्छा लिखा आपने..साधुवाद.
जवाब देंहटाएंकभी 'शब्द-शिखर' पर भी पधारें !!
सही बात। प्रेरक पोस्ट।
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंTruly inspiring !
Regards,
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दुनिया ऐसे लोगों के बल पर ही अभी तक टिकी है। कम हैं, लाइमलाइट में नहीं हैं मगर हैं और बहुत हैं।
जवाब देंहटाएंदुनिया ऐसे लोगों के बल पर ही अभी तक टिकी है।
जवाब देंहटाएंbahut sundar.......... navratri ki aapko bhi dhair sari shubhkamnaye........ jai mata di
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया और बिल्कुल सही लिखा है आपने! शानदार पोस्ट!
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