मंगलवार, 4 मई 2010

कुछ दिल ने कहा....................

                

                            

                      
                    .........दिल की तस्सली के लिए
                                   झूठी चमक झूठा निखार,
                                        जीवन तो सूना ही रहा
                                             सब कहते हैं आई है बहार !
                        कलियों से कोई पूछे तो
                             हंसती हैं या वो रोती हैं ?
                                 ऐसी ही बातें होती हैं
                                     कुछ ऐसी भी बातें होती हैं ......

          " अनुपमा " जी हाँ....! धर्मेन्द्र एवं शर्मीला टैगोर अभिनीत श्वेत-श्याम युग की एक फिल्म "अनुपमा" की  उपरोक्त पंक्तियों का यहाँ पर जिक्र    करने का मेरा उद्देश्य यह नहीं है की मैं उपरोक्त फिल्म की समीक्षा करने जा रहा हूँ ! बल्कि इसलिए की वर्षों पहले लिखी गई उपरोक्त पंक्तियों को एक बार फिर एक संक्षिप्त सा मोबाईल सन्देश ताजगी प्रदान कर गया . हुआ यूँ की  कुछ  दिन पूर्व मुझे मोबाइल पर एक सन्देश   प्राप्त हुआ और जब मैं उक्त सन्देश को पढ़ रहा था  उस समय मुझे  पार्श्व में सुनाई दे रही थी फिल्म अनुपमा की उपरोक्त पंक्तियाँ . क्योंकि सन्देश अंग्रेजी में था जिसे मैं थोडा नमक -मिर्च ,थोड़ी- बहुत हेरा-फेरी कर हिंदी में परिवर्तित करने का प्रयाश कर रहा हूँ .
  संदेशानुसार   एक तथा-कथित सभ्य-शिक्षित एवं साधन संम्पन  शहरी बाप अपने पुत्र को एक गाँव की सैर कराने  ले जाता है, बच्चे को गाँव की सैर कराने का उद्देश्य उस बाप के लिए महज इतना ही था  की 
वह अपने बच्चे को बताना चाहता था की देखो बेटे " तुम सुखी  हो ! तुम साधन संपन हो, और तुम सभ्य एवं शिक्षित हो, देखो अपनी आँखों से क्या होती है गरीबी ?  और क्या होती है अमीरी ? और समझो शहरी  एवं ग्रामीण  जिन्दगी में अंतर को ...........
क्योंकि सीमेंट एवं कंक्रीट के जंगल  से निकल कर एक  बच्चा पहली बार गाँव की खुली हवा में सांस ले रहा था, हरे-भरे एवं लहलहाते खेत-खलिहान ,छोटे-छोटे एवं कच्चे-पक्के घर-गाँव, स्वच्छ हवा- पानी,  समीप ही एक छोटी सी नदी में डुबकियाँ  लगाते हुए ग्रामीण बच्चों की उन्मुक्त हंसी- ठीटोली  एवं  हास-परिहास, चतुर्दिक हरियाली ही हरियाली, झूठी  शान, झूठा दिखावा, खोखले आदर्श,  आपस में भेद- भाव, राग-द्वेष, जाती- धर्म, और अमीरी- गरीबी की सोच से परे  उस बच्चे को यहाँ पर कुछ  और नजर आया तो वह था शहर  की तमाम बाधाओं और बंधनों से मुक्त स्वच्छंद वातावरण, अमन- चैन , सुख-शांति, और  सादगी एवं सहयोग की भावना.
कुछ दिन गाँव मे बिताने  के  बाद  पिता-पुत्र की शहर को वापसी हुई .घर पहुंचते ही पिता ने पुत्र से पूछा " बताओ बेटा ! कैसी लगी गाँव की गरीबी ? अर्थात ग्रामीण जीवन के बारे में तुम क्या कहना चाहोगे ?
भोग -विलास एवं शहरी  चकाचौंध भरी जिंदगी में विश्वास  रखने वाले पिता को उम्मीद के अनुरूप  जवाब की आशा थी...............गाँव में बिताये हुए महज कुछ दिनों को याद कर   पुत्र जवाब देता है.
पिता जी ! हमारे पास तैरने के लिए  एक छोटा सा स्विमिंग पूल है जबकि उनके पास  खुली- डूली एवं साफ़- सुथरी नदी है.
हम लोग स्वयं पर इतराते हैं की कृतिम  रौशनी में हमारे घर  जगमगाते हैं अर्थात  हमारे पास जनरेटर हैं , हमारे पास  इनवर्टर हैं लेकिन................? (बच्चा कुछ सोचता है) 
 पिता - लेकिन क्या ? (पुत्र जो सोच रहा था शायद पिता जी नहीं सोच पाए थे  तभी तो एक उम्मीद के विपरीत   जवाब मिला )
लेकिन उनके पास रोशनी के लिए चाँद है, सितारे हैं........
हमारे पास सेवा के लिए नौकर हैं, लेकिन वे  लोग दूसरों की सेवा करते हैं......
हम भोजन खरीदते हैं लेकिन वे लोग भोजन पैदा करते हैं 
उनके दूर-दूर तक फैले खेतों के मुकाबले हमारा किचन गार्डन कितना छोटा है ? ( है न पापा ....?)
अपनी सुरक्षा के लिए हमारे पास घर है और उनके पास सुरक्षा के लिए मित्र हैं मित्रता है ....... .
पुत्र के जवाबों से पिता लाजवाब हो गया .
सच ! हम कितने गरीब हैं पापा ?
पुत्र के  इन मासूम किन्तु तीखे जवाबों से  पिता निरुतर हो गया और उसे सोचने को मजबूर कर दिया की क्या नहीं है मेरे पास ? धन- दौलत, इज्जत-शौहरत और बंगला-गाड़ी ,सब कुछ तो है मेरे पास फिर भी मैं गरीब हूँ ?
जी हाँ / मैं गरीब हूँ  , मैं  दुखी हूँ  , .... यदि एक बच्चे को मैं  ख़ुशी नहीं दे सकता  हूँ , एक बच्चे को मैं  खेलने -कूदने के लिए जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा मुहैया नहीं करा  सकता हूँ , जहाँ पर मेरा  बच्चा स्वछंद होकर खेल-कूद सके, तो मैं  वास्तव में गरीब ही हूँ , प्रक्रति द्वारा निशुल्क  शुद्ध एवं स्वच्छ हवा पानी तक मैं अपने बच्चे को नहीं दे पाया तो कैसे मैं साधन संपन्न हो गया ?
तो क्या अब तक  मैं स्वयं को झूठी तस्सली देते आया हूँ   ?
जी हाँ !शायद  पुत्र ने पिता को यही सोचने को मजबूर कर  दिया था .........................



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Original Massege (SMS)

Afether took his son 2 a village 2 teach about poverty .
after d trip he ask ed his  son about d poor.
son reply as-
we have small  pool,they have long river
we've lamp,they 've stars
we've small piece of land, they've larg field
we've servent 2 serve us, they serve others.
we buy food,they grow theirs.
we've house 2 protect us, they've friends.
the boy's father was speechless....
then his son said 'thanks papa 4 showing how poor we are....
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 Sender - Deepak Bisht ( Sr. Software Engineer)

2 टिप्‍पणियां:

  1. सभी लोग गाँव के स्वच्छंद वातावरण में नहीं जी सकते और सभी लोग शहरी चकाचौंध और कृत्रिम वातावरण में भी नहीं रह सकते.सबकी अपनी सीमाएं हैं.और उन्हें परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाना पड़ता है,

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  2. बनती-बिगडती परस्थितियों का सुन्दर चित्रण ....
    जिंदगी यूँ ही न जाने कितने मोड़ से गुजरती है ...
    सार्थक प्रयास
    हार्दिक शुभकामनाएँ

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