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किसी चित्रकार को यदि एक सुंदर सा प्राकृतिक दृश्य चित्रित करने को कहा जाय तो यक़ीनन उस चित्रकार द्वारा चित्रित प्राकृतिक दृश्य कुछ यूँ होगा.ऊँची-नीची पर्वत श्रृंखलाएं, हिमांच्छादित चोटियों से बतियाते बादलों के झुण्ड, कल-कल करते नदी-नाले और झरते हुए स्वच्छ एवं शीतल झरने, चतुर्दिक फैली हुई हरियाली और नाना प्रकार के जीव-जन्तु एवं पशु-पक्षियों का मिश्रित कोलाहल.
हालाँकि यह सब उस चित्रकार की कल्पना पर आधारित होगा किन्तु एक सत्य यह भी है की जहां एक ओर नदी-नाले, सागर-महासागर, छोटी-बड़ी पर्वत श्रृंखलाएं, हरियाली और दूर तक फैले रेगीस्तान इस धरती को सुन्दरता प्रदान करते है वहीं दूसरी ओर नाना प्रकार के जीव-जन्तु एवं पशु-पक्षी इस धरती की सुन्दरता में चार चाँद लगा देते है और इसकी सुन्दरता को जीवन प्रदान करते है. जिसे देख मानव मन अक्सर भटकने लगता है सुन्दरता की एक अलौकिक भूल-भुलैया में, और बोल पड़ता है वाह! कितनी सुंदर है यह दुनिया?
सदियों से ही प्रकृति की जिस सुन्दरता से मोहित होकर इन्सान ने गीत गुनगुनाये ,कवितायेँ लिखी , दुर्भाग्य से आज के इस भौतिक युग में उसी मनुष्य ने इसकी सुन्दरता को अत्यधिक क्षति पहुंचाई है, अनियंत्रित एवं अनियोजित विकास एवं निरंतर उग्र होती मानवीय लालसा के परिणाम स्वरूप नदी-नालों, पेड-पौधों, जीव-जन्तु एवं पशु-पक्षी सभी प्रभावित हुए है. आज विकास के नाम पर जिस गति से प्रकृति का दोहन किया जा रहा है वह दिन दूर नहीं जब यह खूबसूरत दुनिया एक सीमेंट एवं कंक्रीट की ऐसी दुनिया में तब्दील हो जायेगी जहां पर इन जीव-जन्तुओं एवं पशु-पक्षियों का अस्तित्त्व ही शेष रह जायेगा , कल्पना कीजिये तब कितनी वीरान हो जाएगी हमारी यह सुंदर सी धरती इन नाना प्रकार के जीव-जन्तुओं एवं पशु-पक्षियों के बिना?
बेशक हम बातें करते है प्राकृतिक संरक्ष्ण की, हम बाते करते है विलुप्त हो रहे जीव-जन्तुओं एवं पशु-पक्षियों के संरक्ष्ण की, इस सम्बन्ध में हमारे आने वाली पीढ़ी की सोच क्या होगी, यह अभी भविष्य के गर्त में है... किन्तु दशकों पहले हमारी दिवंगत पीढ़ी को इस बात का एहसास हो चुका था की वास्तव में इन जीव-जन्तुओं एवं पशु-पक्षियों की अनुपस्थिति में मानव जीवन कितना नीरस एवं वीरान हो जाता है तभी तो उत्तराखंड के कुछ भागों में ' घुघूतीया त्यौहार ' की प्रातः बेला में घर-घर से सुनायी देता है सामूहिक स्वर -
काले कौव्वा , काले-काले
घुघूती मव्वा खाले- खाले
तू ल्हिजा कव्वा बौड़, मैकें दिजा सुनु घ्व्ड..........
मकर संक्रांति जिसे उत्तराखंड के कुछ भागों में ' घुघुतिया त्योयार' भी कहा जाता है, खासकर कुमायूं में इस दिन आटे को गुड के शरबत में गूंध कर मीठे पकवान बनाये जाते है. विभिन्न आकार एवं प्रकार के इन पकवानों में मुख्यता: ढाल एवं तलवार , डमरू, अनार (दाड़िम) के फूल आदि की आकृतियाँ बनायीं जाती है जिन्हें तलने के पश्चात् एक माला के रूप में पिरोया जाता है, माला के बीच-बीच में छोटे-छोटे संतरा अदि भी पिरोये जाते हैं इस काम में खासकर बच्चे अधिक दिलचस्पी दिखाते है ,मकर संक्रांति की सुबह बच्चों को ये मालाएं पहनाई जाती हैं और बच्चे घर की मुंडेर या फिर दहलीज पर खड़े होकर माला से पकवान (घुगुत) तोडकर पक्षियों को खिलाते हैं और गाते है:
काले कौव्वा , काले-काले
घुघूती मव्वा खाले- खाले
अन्य त्योहारों की भांति इस त्यौहार के मनाने के पीछे भी कई धारणाये और भी जुडी हो सकती है लेकिन एक आम धारणा यह भी इस त्यौहार से जुडी है कि:-
दिसम्बर जनवरी कि कडकती ठंड एवं हिमपात से बचने हेतु जब पशु-पक्षी पहाड़ों से मैदानों की ओर पलायन कर जाते है तब उनके बिना यहाँ का पहाड़ी जीवन बिलकुल सुना-सुना सा हो गया था इस सूनेपन को खत्म करने हेतु आवश्यक था कि पहाड़ों से पलायन कर चुके इन पशु-पक्षियों को यहाँ वापस बुलाया जाय, शायद यही सोचकर उन्हें मीठे-मीठे एवं विभिन्न आकार-प्रकार के पकवानों का प्रलोभन देकर रिझाया गया था . पलायन कर चुके पशु-पक्षियों कि वापसी के साथ ही पहाड़ों कि रौनक भी लौट आई थी. अब तक बसंत ऋतु का भी आगमन आरम्भ हो चुका होता है, एक बार फिर कोयल और 'कफुवे' कि जुगलबंदी से गूँज उठता है सारा पर्वतीय जीवन -सचमुच कितनी खुबसूरत है यह दुनिया....
तो क्या इन नदी -नालों इन ऊँची- नीची पर्वत श्रंखलाओं ,इन जीव-जन्तुओं और इन पशु-पक्षियों के बिना भी इस दुनियां की खूबसूरती की कल्पना की जा सकती है ? नहीं ना ! तो आइये हम सब मिलकर इस दुनियां की सुन्दरता को सहेजने का प्रयास करें और तमाम प्राकृतिक संसाधनों एवं जीव-जन्तुओं और पशु - पक्षियों को अपना संरक्षण प्रदान करें i
सभी पाठकों, ब्लोगर एवं देश वासियों को मकर संक्राति ,तिल संक्रांत , ओणम, घुगुतिया , बिहू ,लोहड़ी ,पोंगल एवं पतंग पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाइयों के साथ ..
पी.एस .भाकुनी ----------------------------------------------------------
जितनी सुन्दर ये प्रकृति है , उतनी ही सुन्दर आपकी यह पोस्ट।
जवाब देंहटाएंमकर संक्रांति की बधाई।
prakrati ko samarpit bahut sundar post
जवाब देंहटाएंachha laga padhna
aapka aabhaar
shubh kamnayen
आपको भी मकर संक्रांति कि ढेर सारी शुभकामनाएं...
जवाब देंहटाएंकहते हैं लोग अपनी बात का चित्रण करते हैं... आपने तो चित्र को जुबां दे दी...
बहुत खूब...
sundar jeewant prakritik chitran ....
जवाब देंहटाएंआपको भी मकर संक्रांति कि ढेर सारी शुभकामनाएं...
सर्व प्रथम आपका धन्यवाद मेरे ब्लॉग पर पधारने पर. मकर संक्रांति की शुभकामनाओं के साथ प्रकृति का नैसर्गिक वर्णन के साथ पर्यावरण के लिए भी आप चिंतित दिखाई दिए . आवश्यक भी है .
जवाब देंहटाएंमकरैणी (उतरायाणी) तथा घुघतिया त्यौहार की आपको भी बधाई भाकुनी जी. ........ आप तो सचमुच ही हमें छबीलो कुमौं के दर्शन करा गए. ...... सुन्दर आलेख के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्राकृतिक जीवंत चित्रण| उतरायाणी तथा घुघतिया त्यौहार की आपको भी बधाई|
जवाब देंहटाएंमनुष्य सारे विश्व में आकेला रहना चाहता है.वह एक एक कर सभी प्राणियों को खत्म कर रहा है. वनस्पति भी केवल वही छोड़ना चाहता है जो उसे पसन्द हो.
जवाब देंहटाएंआपको भी मकर संक्राति ,तिल संक्रांत ,ओणम,घुगुतिया , बिहू ,लोहड़ी ,पोंगल एवं पतंग पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं. मैं एक लेख लिखने बैठी हूँ जिसे पढकर आप जैसे प्रकृति, पशु, पक्षी प्रेमी को अच्छा लगेगा.
घुघूती बासूती
अच्छा लिखते हैं आप .... नयी जानकारी देने के लिए आभार !
जवाब देंहटाएंbahut khoob...
जवाब देंहटाएंPlease visit my blog.
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जवाब देंहटाएंभाकुनी जी ,
आपकी पोस्ट पर आकर मकर संक्रांति के अनेकानेक नामों से परिचय हुआ।
आभार।
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> गिरधारी खंकरियाल ji
जवाब देंहटाएं> Dimple Maheshwari ji
> सतीश सक्सेना ji
aap is blog pr aaye or apna bahumuly samay nikaalkr tippani vyakt ki jiske liye main aapka abhaar vyakt kata hun,
भाकुनी जी नमस्कार, आज बहुत दिन बाद कुछ समय मिला तब कुछ ब्लॉग देखे, आपने उत्तरायणी पर्व पर बहुत ही जानकारी पूर्ण लेख लिखा है, पीड़ा के साथ कहना पड़ रहा है कि अब यह संस्कृति केवल लेखों,ब्लोगों या कुछ पुरानी पुस्तकों में ही देखने को मिलती है | व्यवहार में नयी पीढ़ी तो भूल ही गयी | खैर....... क्या पता फिर से वाही जमाना आएगा तो तब यही सब जानकारियां कम आएँगी | धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंभाकुनी जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार
नयी जानकारी देने के लिए आभार !
ब्लॉग को पढने और सराह कर उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया.
जवाब देंहटाएं'जब पशु-पक्षी पहाड़ों से मैदानों की ओर पलायन कर जाते है तब उनके बिना यहाँ का पहाड़ी जीवन बिलकुल सुना-सुना सा हो गया था इस सूनेपन को खत्म करने हेतु आवश्यक था कि पहाड़ों से पलायन कर चुके इन पशु-पक्षियों को यहाँ वापस बुलाया जाय' - संभवतः यह भी एक कारण हो सकता है | कौवे का इस त्यौहार से रिश्ता क्यों है, यह रेखांकित कर पाएं तो ज्ञानवर्धन होगा |
जवाब देंहटाएं> पाण्डेय जी सादर प्रणाम !
जवाब देंहटाएंजहां तक मैं समझता हूँ यदि उपरोक्त धारणा के संदर्भ में देखा जाय तो यहाँ पर कौव्वा महज एक प्रतीक भर है उन पशु -पक्षियों का जो सर्दियों से पूर्व पहाड़ों से पलायन कर चुके थे या पलायन कर जाते हैं ,हाँ जहां पर धारणाओं की बात है इनकी सच्चाई का दावा तो नहीं किया जा सकता है हाँ आप चाहें तो इन्हें अवश्य नकार सकते हैं , वैसे भी हमारे उत्तराखंड में कोई भी शुभ कार्य हो या अशुभ कार्य कौव्वों को ही खाशकर आमंत्रित किया जाता है शायद इसलिए भी की कौव्वा साल भर एक संदेशवाहक की भूमिका भी निभाता रहता है ( यह भी एक धारणा ही है ) बहरहाल ब्लॉग पर आने और अपनी बहुमूल्य प्रतिकिर्या व्यक्त करने हेतु , आभार ..........