रविवार, 30 जनवरी 2011

जश्न ! एक अधूरी आजादी का.


भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र है, आजादी के बाद हमने तीव्र गति से तरक्की की है, आज भारत एक परमाणु संपन्न राष्ट्र  हैं और अग्नि, पृथ्वी एवं ब्रह्मोस  जैसी मिसाइलों का सफल परिक्षण भी कर चुका  हैं, हमने कृषि, स्वास्थ एवं सुरक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण तकनीकी उपलब्धियां हासिल कर ली हैं, हमारे डाक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिकों ने पूरी दुनियां में अपनी खास  पहिचान बनाई है, बावजूद इसके आज  हमारा देश पूर्णत: विदेशी कम्पनियों की गिरफ्त में है, और हम इन विदेशी कम्पनियों पर इस कदर निर्भर है कि हमारे स्नानघर से लेकर हमारे रसोईघर तक के सभी क्षेत्र इन बहुराष्ट्रीय  कम्पनियों के उत्पादों से सज्जित हैं, बेशक हमारा चंद्रयान चंद्रमा पर पानी के अवशेष तलाशने में कामयाब रहा हो लेकिन हम आज भी जब किसी रोते हुए बच्चे को खुश करने हेतु कोई टाफी या लेमनजूस उसे देते है तो वह किसी-न-किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी द्वारा निर्मित होती है,
कहने और सुनने में बड़ा अजीब सा लगता है की कोई विदेशी कम्पनी  हमारे  देश में आकर हमारे कुशल  कारीगरों से हमारे ही संसाधनों का दोहन कर कोई वस्तु बनवाती है जिसे  सिर्फ अपना नाम देकर हमारे ही बाजारों में भारी कीमत पर हमको  ही बेचती है और हमारा ही  रुपया मुनाफे के रूप मे समेट कर अपने  देश को ले जाती है, यहाँ पर गौर करने वाली बात यह है की जब कारीगर हमारे हैं, संसाधन हमारे अपने हैं, बाजार हमारे अपने हैं और तो और खरीदार  भी हम स्वयं हैं तो फिर क्यों एक विदेशी ठप्पा हम बर्दाश्त कर रहे हैं? क्या हम पूर्णरूप से स्वतंत्र हैं? क्या यह एक किस्म की आर्थिक गुलामी नहीं है?
शायद यह  हमारी मज़बूरी है की हमें इन विदेशी उत्पादों को झेलना पड़ रहा है, वरना हम भारतीयों में स्वदेशी की भावना कूट-कूट कर भरी पड़ी  है, वास्तव में देखा जाय तो हमारा  भारतीय उद्योग जगत देश की विशाल जनसंख्या की रोजमर्रा की आवश्यकताओं को पूरा कर पाने में असमर्थ रहा है, उपेक्षापूर्ण सरकारी रवैया के चलते हमारे कुटीर अथवा लघु उद्द्योग  या तो दम तोड़ रहे हैं या फिर जहां के तहां खड़े हैं l
हालाँकि स्वदेशी  की भावना को प्रोत्साहन देने और उत्पादों को आम आदमी तक पहुचाने हेतु  देश में अनेकों सामाजिक संगठन और संस्थाएं  सक्रीय  हैं और इसी उद्देश्य से खादी ग्रामोद्योग की भी स्थपना की गई है तथा नारा दिया गया की "खादी वस्त्र नहीं अपितु एक विचार है " एक विडम्बना यह भी रही है की विचार तो आम आदमी तक पहुँच गए लेकिन खादी आम आदमी से दूर होती चली गई, जबकि तन को ढकने हेतु वस्त्र की आवश्यकता होती है न की विचारों की l
स्वदेशी आंदलनो से जुड़े कुछेक सामाजिक संगठनो एवं संस्थाओं  को ही इस बात का श्रेय जाता है कि पिछले कुछ वर्षों में आम भारतीयों की सोच में भारी परिवर्तन आए हैं, इन वर्षों में जहां एक ओर स्वदेशी उत्पादों के प्रति उसका रुझान बढ़ा है वही दूसरी ओर वह अपने स्वास्थ के प्रति भी  जागरूक हुआ है, तथा  आकर्षक एवं लुभावनी पैकिंग और गुमराह करने वाले विज्ञापनों की असलियत को उसने भलीभांति जाना है, यह एक उत्साहजनक संकेत है उन सामाजिक संगठनों एवं संस्थाओं के लिए जो स्वदेशी आंदलनो  एवं स्वदेशी उत्पादों के प्रचार-प्रसार मे सक्रीय हैं, किन्तु इस दिशा में मात्र इतनी सी सफलता काफी नहीं है l
अर्थात इन विदेशी कम्पनियों की गिरफ्त से हम तभी स्वतंत्र हो सकते हैं जब आम भारतीय तक इन विदेशी कम्पनियों का विकल्प हम  पहुंचा सकेंगे, और  उसकी रोजमर्रा की वस्तुएं उसे उचित मूल्य पर आसानी से उपलब्ध करा सकेंगे, कहना गलत नहीं होगा की देश की आम जनता को स्वदेशी उत्पाद या तो कभी-कभार प्रदर्शनियों मे नजर आते  हैं या फिर इक्का-दुक्का शो रूमो में, जबकि ब्रिटानिया के बिस्किट, विमको की माचिस  हो या फिर प्राक्टर एंड गैम्बल कम्पनी के  टाफी या चाकलेट  अथवा जिलेट के शेविंग ब्लेड और रेजर किसी भी पान-बीडी के खुमचे में भी आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, शायद यही कारण हैं की आजादी  के  इतने सालों बाद भी हम छटपटा रहे हैं इन विदेशी कम्पनियों की गिरफ्त में, और प्रतिवर्ष जश्न मनाते हैं एक अधूरी आजादी का l  



21 टिप्‍पणियां:

  1. "...भारतीय उद्योग जगत देश की विशाल जनसंख्या की रोजमर्रा की आवश्यकताओं को पूरा कर पाने में असमर्थ रहा है,"

    इंडस्ट्री लगाते ही एक्साइज इन्स्पेक्टर आ धमकेगा ! उसकी आवाभगत करो, फिर लेबर इन्स्पेक्टर, फिर इ एस आई इस्पेक्टर, फिर पी ऍफ़ इन्स्पेक्टर, फिर सेल्स टैक्स इन्स्पेक्टर फिर इन्काम टेक्स इंस्पेक्टर फिर असेसमेंट इन्स्पेक्टर ! लेबर यूनियन, ऊपर से उद्योगपति टाटा की तरह इस जुगाड़ में कि१५०० करोड़ में २ जी स्पेक्ट्रम खरीदो और उसका सिर्फ ३५ प्रतिशत हिस्सा जापान की कम्पनी को १२५०० करोड़ में बेच दो ! इतनी सरदर्दी उद्योग में लेने की जरुरत क्या है? बस , यही टेंडेंसी मार गई !

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  2. सही कहा आप ने,हमारी सरकार और सामाजिक संगठनों को चाहिए कि वो लघु उधोगों को बढ़ावा दें,जिस से आम आदमी की रोजमर्रा की जरूरतों की पूर्ति उचित दामों पर हो सके| देश का पैसा देश में रहे|

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  3. बहुत सही और सटीक रेखांकन किया आपने..... एक सार्थक आलेख के लिए बधाई

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  4. आज़ादी के बाद भी मानसिकता तो गुलाम ही है न। स्वेदेशी वस्तुओं के इस्तेमाल के बजाये हम वापस विदेशी वस्तुओं कों बढ़ावा दे रहे हैं। एक बहुत ही सार्थक आलेख और ज्वलंत मुद्दे कों उठाने के लिए आभार।

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  5. बहुत ही सही बात उठाई है आपने... आस-पास देखकर यदि सोचा जाए तो ज्यादा कुछ बदला नहीं है... अब तो बस एक उम्मीद है की कभी-न-कभी हम स्वतंत्र जरूर होंगे...

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  6. आपने हर दिल का दर्द लिख दिया है !
    सार्थक लेख के लिए धन्यवाद !

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  7. वसन्त की आप को हार्दिक शुभकामनायें !

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  8. सटीक चिंतनशील प्रस्तुति ... सार्थक आलेख प्रस्तुति के लिए आभार

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  9. बन्धुवर!
    इसी तरह आपकी लेखनी चलती रहे।
    चेतना का सृजन करती रहे॥


    मैं वृक्ष हूँ। वही वृक्ष, जो मार्ग की शोभा बढ़ाता है, पथिकों को गर्मी से राहत देता है तथा सभी प्राणियों के लिये प्राणवायु का संचार करता है। वर्तमान में हमारे समक्ष अस्तित्व का संकट उपस्थित है। हमारी अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं तथा अनेक लुप्त होने के कगार पर हैं। दैनंदिन हमारी संख्या घटती जा रही है। हम मानवता के अभिन्न मित्र हैं। मात्र मानव ही नहीं अपितु समस्त पर्यावरण प्रत्यक्षतः अथवा परोक्षतः मुझसे सम्बद्ध है। चूंकि आप मानव हैं, इस धरा पर अवस्थित सबसे बुद्धिमान् प्राणी हैं, अतः आपसे विनम्र निवेदन है कि हमारी रक्षा के लिये, हमारी प्रजातियों के संवर्द्धन, पुष्पन, पल्लवन एवं संरक्षण के लिये एक कदम बढ़ायें। वृक्षारोपण करें। प्रत्येक मांगलिक अवसर यथा जन्मदिन, विवाह, सन्तानप्राप्ति आदि पर एक वृक्ष अवश्य रोपें तथा उसकी देखभाल करें। एक-एक पग से मार्ग बनता है, एक-एक वृक्ष से वन, एक-एक बिन्दु से सागर, अतः आपका एक कदम हमारे संरक्षण के लिये अति महत्त्वपूर्ण है।

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  10. भाखुनी जी!
    आपने कई तरह के सवाल अपने आलेख में उठाए हैं। आपकी चिंता स्वाभाविक है। उस परिपेक्ष्य में निवेदन है कि आज हम चरित्र-संकट के दौर से गुजर रहे हैं। हमारे विद्यालय और विश्वविद्यालय जो कभी चरित्र-निर्माण के केन्द्र हुआ करते थे वे अब व्यवसायी (प्रोफेशनल) बनाने वाले अड्डों मे बदल चुके हैं। जब तक शिक्षा को चरित्र-निर्माण से नहीं जोड़ा जाता तब तक समाज में अराजकता व्याप्त रहेगी और "मैं चाहे जो करूँ......मेरी मर्ज़ी" वाला सिद्धांत प्रभावी रहेगा। यह सिद्धांत मानवीय-मूल्यों का पक्षध्रर होने के बजाय ताकत का परिचायक है। आप इसे जंगलराज कह सकते हैं। ऋषियों ने कभी इस सिद्धांत की व्याख्या "वीर भोग्या वसुंधरा" के रूप में की थी। जिस देश का समाज जितना सभ्य होगा उस देश में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली उतनी ही कामियाब होगी। हम सभी को लोकतंत्र में जीने के लिए चरित्र-संकट से उबरना होगा। अन्यथा सदियों से विदेशी लोग हमारे चारित्रिक पतन का फायदा उठाते रहे हैं और आगे भी उठाते रहेंगे।
    सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी

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  11. भाकुनी जी,
    बहुत दिनों से नई पोस्ट..................प्रतीक्षा है



    डॉ. दिव्या श्रीवास्तव ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर किया पौधारोपण
    डॉ. दिव्या श्रीवास्तव जी ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर तुलसी एवं गुलाब का रोपण किया है। उनका यह महत्त्वपूर्ण योगदान उनके प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता, जागरूकता एवं समर्पण को दर्शाता है। वे एक सक्रिय ब्लॉग लेखिका, एक डॉक्टर, के साथ- साथ प्रकृति-संरक्षण के पुनीत कार्य के प्रति भी समर्पित हैं।
    “वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर” एवं पूरे ब्लॉग परिवार की ओर से दिव्या जी एवं समीर जीको स्वाभिमान, सुख, शान्ति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि के पञ्चामृत से पूरित मधुर एवं प्रेममय वैवाहिक जीवन के लिये हार्दिक शुभकामनायें।

    आप भी इस पावन कार्य में अपना सहयोग दें।


    http://vriksharopan.blogspot.com/2011/02/blog-post.html

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  12. > डॉ० डंडा लखनवी जी आप मेरे ब्लॉग पै आए इसके लिए मैं आपका आभार व्यक्त करता हूँ , निश्चित ही मेरा मनोबल बढ़ा है , उम्मीद है मार्गदर्शन करते रहेंगे ,

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  13. > वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर- पर्यावरण को समर्पित आपका प्रयास निश्चित ही सराहनीय है , ब्लॉग पर आने हेतु आपका आभार व्यक्त करता हूँ ,

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  14. > ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ जी आप मेरे ब्लॉग पै आए इसके लिए मैं आपका आभार व्यक्त करता हूँ , निश्चित ही मेरा मनोबल बढ़ा है ,

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  15. > पी.सी.गोदियाल "परचेत" जी
    > डॉ॰ मोनिका शर्मा
    > सुरेन्द्र सिंह " झंझट "
    > amrendra "amar"
    आप मेरे ब्लॉग पै आए इसके लिए मैं आपका आभार व्यक्त करता हूँ , निश्चित ही मेरा मनोबल बढ़ा है , उम्मीद है मार्गदर्शन करते रहेंगे ,

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