जब खेतों में महकने लगे पीली -पीली सरसों और खिलने लगती हैं जौं एवं गेहूं की बालियाँ, जब बागों में अम्बिया के झुरमुट बौराने लगे और चतुर्दिक में नाना प्रकार के पक्षी एवं रंग-बिरंगी तितलियाँ मडराती हुई नजर आने लगे तो समझ लीजिये की यही है ऋतुराज बसन्त की प्रथम आहट जिसके साथ ही प्रकृति का कण-कण पल्लवित हो उठता है! सिर्फ प्रकृति ही क्यों? क्या मनुष्य, क्या जीव-जंतु सभी ऋतुराज की प्रथम दस्तक मात्र से ही उमंग-उल्लास एवं उत्साह से सरोबर हो उठते हैं, प्रकृति में जब भी नई उमंग, नई तरंग एवं नये उत्साह का संचार होता है तब हम भारतीय अपनी अभिव्यक्ति एवं अपनी भावनाओं को व्यक्त करने से स्वयं को रोक नहीं पाते हैं, खासकर हमारे लोक जीवन में तीज-त्योहारों एवं पर्वों के माध्यम से मानवीय अभिव्यक्ति एवं भावनाओं को व्यक्त करने की परम्परा आदि काल से ही रही है, ऐसी ही एक परम्परा उत्तर-पूर्वी भारत में सदियों से चली आ रही है l "बसन्त पंचमी " हिंदी कालचक्रानुसार माघ महीने के पांचवे दिन ऋतुराज बसन्त के अभिनन्दन स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व "बसन्त पंचमी" को "माघ पंचमी" भी कहा जाता है, पौराणिक कथाओं एवं काव्यग्रंथो में इस पर्व का भिन्न-भिन्न रूपों में वर्णन मिलता है, प्रथम दृष्टया बसन्त के आगमन पर उसके स्वागतार्थ मनाया जाने वाला यह पर्व एक ऋतुपर्व प्रतीत होता है किन्तु एक पौराणिक कथा भी इस पर्व के साथ जुडी है कि:-
सृष्टि की रचना के आरम्भ में ब्रह्मा जी अपनी मूक रचना से खुश नहीं थे, उन्हें लगता था की कहीं-न-कहीं कोई कमी रह गई है जिस कारण इस सृष्टि में कोई शब्द नहीं हैं, इसमें कोई संगीत नहीं है अतैव इस सृष्टि में चतुर्दिक ख़ामोशी छाई हुई है, सो उन्होंने इस कमी की पूर्ति हेतु भगवन विष्णु जी से विचार-विमर्श के पश्चात अपने कमंडल से इसमे जल का छिडकाव किया जिसके फलस्वरूप यह सृष्टि कम्पित हुई तत्पश्चात हरे-भरे एवं फूलों से आच्छादित बृक्षों के बीच से एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री शक्ति के रूप में अवतरित हुई जिसके एक हाथ में वीणा और दूसरा हाथ वरमुद्रा में था, जबकि अन्य दो हाथों में क्रमश: पुस्तक एवं माला थी, अब ब्रह्मा जी ने शक्ति रूपी देवी जी से वीणा वादन हेतु आग्रह किया और जैसे ही उस शक्ति रूपी देवी ने वीणा वादन आरम्भ किया सृष्टि के समस्त जीव-जन्तुओं को बाणी प्राप्त हो गई, नदी-नाले कल-कल छल-छल की ध्वनी से गुंजायमान हो गए, झर-झर झरते हुए झरनों का मधुर संगीत और शीतल मंद हवाओं की सरसराहट चतुर्दिक में में गूंजने लगी, यह सब देख ब्रह्मा ने उस देवी को बाणी की देवी "सरस्वती" कहा, सरस्वती को वीणा वादनी, शारदा, बागीश्वरी आदि नामो से भी जाना जाता है, देवी सरस्वती विद्या और बुद्धि की प्रदाता है, संगीत की उत्त्पति करने के कारण यह "संगीत की देवी" भी कहलाई, अतैव देश के कई हिस्सों में बसन्त पंचमी को देवी सरस्वती के जन्मोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है l
बहरहाल ! साहित्य, संगीत एवं कला की देवी सरस्वती की अनुकम्पा जब किसी पर होती है तो कविता अनायास ही फूट पड़ती है :-सृष्टि की रचना के आरम्भ में ब्रह्मा जी अपनी मूक रचना से खुश नहीं थे, उन्हें लगता था की कहीं-न-कहीं कोई कमी रह गई है जिस कारण इस सृष्टि में कोई शब्द नहीं हैं, इसमें कोई संगीत नहीं है अतैव इस सृष्टि में चतुर्दिक ख़ामोशी छाई हुई है, सो उन्होंने इस कमी की पूर्ति हेतु भगवन विष्णु जी से विचार-विमर्श के पश्चात अपने कमंडल से इसमे जल का छिडकाव किया जिसके फलस्वरूप यह सृष्टि कम्पित हुई तत्पश्चात हरे-भरे एवं फूलों से आच्छादित बृक्षों के बीच से एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री शक्ति के रूप में अवतरित हुई जिसके एक हाथ में वीणा और दूसरा हाथ वरमुद्रा में था, जबकि अन्य दो हाथों में क्रमश: पुस्तक एवं माला थी, अब ब्रह्मा जी ने शक्ति रूपी देवी जी से वीणा वादन हेतु आग्रह किया और जैसे ही उस शक्ति रूपी देवी ने वीणा वादन आरम्भ किया सृष्टि के समस्त जीव-जन्तुओं को बाणी प्राप्त हो गई, नदी-नाले कल-कल छल-छल की ध्वनी से गुंजायमान हो गए, झर-झर झरते हुए झरनों का मधुर संगीत और शीतल मंद हवाओं की सरसराहट चतुर्दिक में में गूंजने लगी, यह सब देख ब्रह्मा ने उस देवी को बाणी की देवी "सरस्वती" कहा, सरस्वती को वीणा वादनी, शारदा, बागीश्वरी आदि नामो से भी जाना जाता है, देवी सरस्वती विद्या और बुद्धि की प्रदाता है, संगीत की उत्त्पति करने के कारण यह "संगीत की देवी" भी कहलाई, अतैव देश के कई हिस्सों में बसन्त पंचमी को देवी सरस्वती के जन्मोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है l
आहा रे बसंता उनै रै जये, रंग-बहार ल्युनै रै जये,
हाँग-फ़ांग, पुंग-पांगी फूटा, किल्मोदी भूझा,लाल-लाल गुदा,
खिलंड लगा फूल अनेका, लाल,पीला और सफेद,
दैण, पिहलों, स्यार हरिया,रंग-बिरंगा साड़ी पैरिया
डान-कान छाजणों बुरुंशी क फूला, जाण कौला जग रों लाल बलबा,
बहार ऐगे चारों तरफा, हवा बहनै चारों तरफा,
भागी गो जाड़ा , हसनौ बसंता, फूल गई फूल रंग-बिरंगा l
बसन्त लगौनौ कटुक प्यारा,चाड पिटंगा गानैई गीता,
रंगीलो बसंता उनै र जये, घर-घर द्वार-द्वार रंग बरसेये l
आहा रे बसंता उनै रै जये, रंग-बहार ल्युनै रै जये,
"हंसा" करणों अरज आजा, बसन्त-बसंती सतरंग फोकिये ,
उदेख मनखी, बोट-डाव-पक्षी,हरिया-भारिया खूब खिलैये
आहा रे बसंता उनै रै जये..................................
जी हाँ ! 18 मई सन 1941 को गाँव -माला, जिला - अल्मोड़ा ( उत्तराखंड ) में जन्मे श्री हंसा दत्त पाण्डेय जी की आरंभिक शिक्षा ग्राम स्तर पर हुई, मात्र नौ वर्ष की आयु में सन्निपात की वजह से दोनों आँखों की रौशनी जाती रही, विषम परिस्तिथियों के बावजूद भी अध्यन कार्य जारी रहा और आगे चल कर व्यक्तिगत तौर पर एम्. ए. (राजनीती शास्त्र ) तक की पढाई पूरी की, वर्तमान में गाँव में रह कर ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर जीवन-यापन कर रहे हैं, आकाशवाणी से कई रचनाएँ अब तक प्रसारित हो चुके हैं, उपरोक्त रचना श्री हंसा दत्त पाण्डेय जी की बेहतरीन कुमाउनी रचनाओं में से एक है, हिंदी अनुवाद करते हुए मुझे लगता है शायद मैं उपरोक्त रचना से न्याय नहीं कर पाउँगा जिसका मुझे खेद है l
सभी ब्लोगर, पाठकों एवं देश वासियों को बसन्त पंचमी की ढेरों बधाइयाँ एवं शुभकामनाएं ...............
श्री हंसा दत्त पाण्डेय जी के प्रेरक व्यक्तित्व के विषय में जानकर अच्छा लगा..... आंचलिक शब्दों में जीवन की अलग ही सुगंध होती है.....
जवाब देंहटाएं'बसंता उनै रैये,तुमार जीवन में हजार बार. - वसंत आगमन पर कवि ह्रदय के उदगार एवं जानकारियों हेतु आभार ,बधाई .
जवाब देंहटाएंलाग श्री पंचमी, लाग हर्यावा, लाग दसें, स्यावकी जसि बुद्धि है जो,सिंह जस त्राण है जो, सिल पिसि भात खाए, जान्ठी टेकि झाड़ी जाये, जी रये, जगी रये, बची रये|
जवाब देंहटाएंहंसा दत्त पाण्डेय जी कि आंचलिक उत्तम रचना को पढ़ाने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंbahut sundar prastuti
जवाब देंहटाएंश्री हंसा दत्त पाण्डेय जी के बारे में जानकारी और रचना की प्रस्तुति के लिये आभार! सम्भव हो तो आकाशवाणी में प्रसारित (या अन्य) ऑडियो भी रखिये कभी।
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