मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

जो बात इस जगह है कहीं पै नहीं..............


प्रवेश द्वार से सटे हुए दो विशाल पाषाड खण्डों को देखते ही सहज अनुमान लगाया जा सकता है की अब हम शभ्यता के मद मे चूर  आधुनिक चकाचौंध भरी दुनियां को छोडकर उस आदम युग में  प्रवेश करने जा रहे हैं  जहाँ कभी मनु की अशभ्य एवं अशिक्षित  संतान अठखेलियाँ किया करती थी, कदाचित हमारा अनुमान सही निकला, मुख्य द्वार को लांघते ही हम एक ऐसी दुनियां में  प्रवेश क्र चुके थे जहाँ चरों ओर पसरी हुई गहन ख़ामोशी को तोड़ने का असफल प्रयास करते नाना प्रकार के कीट-पतंगों एवं पशु-पक्षियों की आपस में  मानो  होड़ सी लगी हुई है, समीप ही  एक पहाड़ी से गिरती हुई शीतल-स्वच्छ जल धारा सदियों से यहाँ के वातावरण में जल तरंगों का मधुर कर्ण प्रिय संगीत एवं ताजगी घोलती आ रही है।
          दिसम्बर-जनवरी की गुलाबी-गुलाबी सी ठंडक में  ऊष्मा का संचार करती सूरज की किरणें ! जी करता है तनिक ठहर जाउँ और घुल-मिल जाउँ इस मानव समूह के मध्य में जाकर ! देखो न !  कितना सजीव  प्रतीत होता  है ?
"सुनो " एक अंतराल से खंडित वार्तालाप को पुन: जोड़ने का प्रयास किया मैंने!
"हूं ...... ! कुछ कहा तुमने ?
"अवश्य  ! वह सामने मानव समूह देख रहे हो न? देखो ! कैसे गुनगुनी धूप  का आनंद ले रहा है?
"हाँ! देख रहा हूँ, "हालांकि शब्द बेरुखे थे, किन्तु ध्वनी में  कही-न-कही विष्मय एवं कौतुहल अवश्य छिपा था। 
 यूँ  लगता है  मानो लौह-सीमेंट निर्मित एवं पुरानी  टूटी-फूटी क्राकरी  के रंग-बिरंगे टुकड़ों से सुसज्जित भिन्न-भिन्न आकर-प्रकार एवं भावभंगिमा लिए हुए मानवाकृतियाँ समूह बनाये हमारे स्वागतार्थ खड़े थे, शायद  हमसे संबाद स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे ।
अरे ....... अरे............तनिक देखो तो सही ! बंदरिया अपने नवजात शिशु को सीने से लगाये भागे जा रही है ..........नहीं .......! नही...........! कहाँ भागे जा रही है ? वह तो बंदरिया की एक निर्जीव आकृति भर है,
ठीक कहा तुमने ! वह तो एक निर्जीव आकृति भर है बंदरिया की ! किन्तु.......... ? 
किन्तु यह विशालकाय अजगर ..........?  क्या यह भी कोई............?
अरे भई कुछ नहीं है, शिल्पकार की शिल्प कला का अदभुद एवं बेजोड़ नमूना .....शायद इसमें जान डालना भूल गया होगा अन्यथा अब तक न जाने कहाँ गायब हो चुका होता।
स्वयं से वार्तालाप के इस संक्षिप्त दौर  को अस्थाई विराम  देते ही कदम कुछ गति पकड़ते हैं, छोटे-बड़े, आड़े-तिरछे, घने एवं चौड़ी पत्तीदार वृक्ष अंशुमाली की राह में बाधक बने हुए थे, सपष्ट था की सदियाँ गुजर गई मगर अंशुमाली की किरणे  आज तक जमीन का स्पर्श भी नहीं कर  पाई  थी, सूरज की मात्र एक किरण की चाहत में पेड़-पौधों में  भी  प्रदिद्वान्दिता  की भावना पनप चुकी थी, यही कारण  था की कुछ पेड़-पौंधे अपनी वास्तविक  ऊंचाई से भी कहीं उपर उठ चुके हैं, नीचे  जमीन की गीली एवं  नम मिटटी नाना प्रकार के खर-पतवार एवं कीट-पतंगों को पनपने का भरपूर अवसर प्रदान कर रही है, अचानक एक घास-फूस की झोपडी ने मेरे कदम रोक लिए------
इस वीरान जंगल में  यह मानव निर्मित झोपडी-----?  शायद कोई रहता भी होगा-----? उम्मीद है की अंदर के हालात   मेरी शंका का समाधान कर  पाएंगे--------
तनिक सोच-विचार के पश्चात् मैं   झोपडी में  प्रवेश में  करता हूँ ----
झोपडी के अंदर का दृश्य देखने लायक था, यहाँ-वहां  चारों  कोने मकड़ी के जालों से आचाछादित जो की काफी पुराने जान पड़ते हैं, उधर एक कोने में  बना मिटटी का चूल्हा, कुछेक अधजली किन्तु बुझी हुई लकड़ी के टुकड़े, यत्र-तत्र बेतरतीब बिखरे हुए धुल-धूसरित मिटटी के टूटे-फूटे बर्तनों को देख कर  अनुमान लगाया जा सकता है की अब तक इंसान  सभ्यता के लिहाज से काफी तरक्की  कर  चुका  था, अर्थात आदम युग काफी पीछे छुट चुका   था।
"क्या सोच रहे हो ?"
"हूँ..........  सोच रहा हूँ सभ्यता के इस पड़ाव में  इंसान का रहन-सहन, उसके तौर-तरीके कैसे रहे होंगे ?"
संघर्ष तो यहाँ भी कम नहीं थे.........?
इस वियावान जंगल में  अकेला एक आदम दम्पति कैसे मुकाबला करता होगा खूँखार  जंगली दरिंदों से  ?
सदियों से वीरान पड़ी झोपडी को देखकर अनुमान लगाना भी मुमकिन नहीं था की आगे चलकर किस रूप में  हुई होगी उस आदम  दम्पति की परिणति  ? 
मैं जनता था  मेरे इन सवालों का जवाब  झोपडी की ये जर्जर दीवारें, और ये शेष-अवशेष भी  नहीं  नहीं दे पाएंगे, लिहाजा समय की उपयोगिता  को समझते हुए अब  मेरा यहाँ पर रुकना निरर्थक ही होगा।
 सूरज सिर पर चढ़ आया था, उबड़-खाबड़ वन प्रदेश में हिंसक जंगली पशुओं से स्वयं को बचते-बचाते अब मैं सुरम्य वादियों में विचरण कर रहा था, पाषण  युग से अब तक के इस सफ़र में  तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों  को समेटते हुए एक नए युग में  प्रवेश करना सचमुच बेहद सुकून भरा था, दूर-दूर तक फैली हुयी हरी-भरी घाटियाँ, यत्र-तत्र छितराए हुए से मानवीय बस्तियां, घर-आंगन में खेलते-खिलखिलाते बच्चे, चारों ओर लहलहाते खेत-खलिहान, नैसर्गिक सौन्दर्य एवं महान शिल्पी नेकचंद की कला एवं कल्पना शक्ति "राकगार्डन" का अंतिम पड़ाव,  लौह-सीमेंट निर्मित एवं रंग-बिरंगी क्राकरी के टुकड़ों से सुसज्जित एक बेंच में  बैठकर तनिक विश्राम  के पलों में सामने झुला झूलते हुए बच्चों को देख किसी का भी मन-मयूर डोलने लगता है......? सचमुच कितनी सुंदर है यह रचना........  
 

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(सिटी ब्यूटीफुल चंडीगढ़ स्थित पद्मभूषण महान शिल्पी नेकचंद की कला एवं कल्पना शक्ति का अदभुत  संगम "राकगार्डन" के समानान्तर लिखी गई एक पोस्ट जिसे कहानी के रंग में  रंगने का प्रयास मात्र किया गया है। 
                                        _____________ ( p_singh67@yahoo.com ) ____________




9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत साल पहले जब विद्यार्थी था तब इस जगह के दर्शन किये थे, फिर करीब ८-१० साल बाद सपरिवार गया तो अहसास हुआ कि इस रुक गार्डन में अनेक तब्दीलिया हो गयी थी ! मैं इस भ्रम में था कि इसे बिना छेड़े ही ज्यों का त्यों रखा गया है !

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  2. चौरासी में था वहाँ, चार वर्ष का काम |
    नेकचंद की कला का, हुआ चतुर्दिक नाम |
    हुआ चतुर्दिक नाम, लगाया फिर से चक्कर |
    करे प्रभावित लेख, बड़ा आभारी रविकर |
    अजगर हाथी शेर, धरा के सारे वासी |
    भरे पड़े हैं ढेर, लाख योनी चौरासी ||

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  3. आपने सही कहा,,,, जो बात इस जगह है कहीं पै नहीं...कम से कम ऐसी जगह मुझे तो कही देखने को नही मिली,,,,मनमोहक प्रस्तुति,,,,,

    नवरात्रि की शुभकामनाएं,,,,

    RECENT POST ...: यादों की ओढ़नी

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  4. सराहनीय एवं रोचक ढंग से प्रस्तुत पोस्ट....

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  5. बहुत ही प्रशंसनीय प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है। धन्यवाद।

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  6. कलाकार हर किसी में होता है मगर नेकचंद ने साकार किया...
    शुभकामनायें !

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  7. यह गार्डन देखा हुआ है ....कमाल की क्लाकृतियाँ बनाई हैं ..... आपने उनका वर्णन भी बहुत कलात्मकता से किया है ...

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